न जाने कैसी उलझनें हैं, जो सोने नहीं देती हैं। रोना चाहती हूं, मगर रोने नहीं देती हैं। कभी लगता है कि सब कुछ ठीक है। तो कभी लगता है, क्या सब कुछ ठीक है?
जब भी लगता कि सब कुछ ठीक है, तो मन ही मन इठलाती हूं।और जब लगता है, क्या सब कुछ ठीक है? तो अंदर से घबराती हूं।इन्हीं उलझनों में कहीं सुकून खोने लगा है।
हंसमुख सा वो चेहरा अब बेचैन होने लगा है। उलझनों के चलते कई सवाल उठ रहे हैं। जवाबों के अभाव में अंदर ही घुट रहे हैं। काश! इन उलझनों से निजात मिल जाए।
उदास मन कैसे भी फिर से खिल जाए। सुकून से मैं खुद की दुनिया में रह पाऊं बेफिक्र हो जहां मैं अपने मन का कर पाऊं।
लेखिका:- शशि सिंह